नई चुनौतियों के कारण बदल रहा है भारतीय सिनेमा

साहित्य, कला, रंगमंच और सिनेमा माध्यमों में सिनेमा हमेशा चर्चा के केंद्र में रहा है और इसका सीधा सा कारण यह है कि सिनेमा हमारी जिंदगी को बेहद करीब से छूकर गुजरता है। हमारी जिंदगी के तमाम अक्स हमें सिनेमा में नजर आते हैं और ऐसे लोगों की तादाद बहुत बड़ी है, जो अपने जीवन के हर कदम पर सिनेमा से प्रभावित हुए हैं। आज सिनेमा ने सौ साल से ज्यादा का सफर मुकम्मल कर लिया है और इतने लंबे सफर के दौरान हर दौर में सिनेमा ने अनेक चुनौतियों का सामना किया है। बड़े फख्र के साथ कहा जा सकता है कि सिनेमा ने उसकी राह में आने वाली मुश्किलों और चुनौतियों का दिलेरी से सामना किया है। तेजी से बदलते दौर में सिनेमा का कथ्य और शिल्प भी बदला है और अब वो दौर आ गया है, जब सिनेमा को सिर्फ मनोरंजन का जरिया नहीं समझा जाता, बल्कि फिल्मकारों ने भी सडक़छाप फार्मूलों का मोह छोडक़र सिनेमा को पारंपरिक नाच-गानों से बाहर निकाला और आज फिल्में जन-जन की आवाज बन गई हैं। चाहे प्रतिरोध के स्वर हों या फिर देश-दुनिया और समाज से जुड़ा कोई गंभीर मसला हो- फिल्मकारों ने पूरी शिद्दत के साथ उन्हें अपने अंदाज में ढाला है। एक समय था जब हॉलीवुड की फिल्मों को सिनेमा का मानक समझा जाता था और बाकी दुनिया के फिल्मकार हॉलीवुड से प्रेरणा लेने में  ही अपना जीवन सफल मानते थे। लेकिन आज हालात बदल गए हैं। लाखों-करोड़ों लोगों की पसंद बना हिंदी सिनेमा भी आज विश्व सिनेमा में अपनी दमदार मौजूदगी दर्ज करा रहा है।


पर क्या हम पूरे विश्वास के साथ कह सकते हैं कि नए दौर में सिनेमा अब पहले से ज्यादा महत्वपूर्ण और प्रासंगिक हो गया है? कहीं सिनेमा ने अपने सामने मौजूद चुनौतियों का मुकाबला करते हुए अपनी पहचान तो नहीं खो दी है? वर्तमान दौर की फिल्मों के संदर्भ में हमेें इन सवालों के जवाब तलाशने होंगे। हम में से ज्यादातर लोग इस बात से सहमत होंगे कि अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के दौर में जो एक नया उच्च वर्ग तथा मध्य वर्ग पैदा हुआ है, उसने सिनेमाई मुहावरे भी बदल दिए हैं। अब ऐसे वर्ग की पसंद-नापसंद को ध्यान में रखते हुए फिल्में बनाई जा रही हैं और इसी प्रवृत्ति का नतीजा है कि आज मजदूर, किसान तथा निम्न मध्यवर्ग न केवल फिल्मों की कहानियों से गायब हो गया है, बल्कि वह अब तो सिनेमाहालों से भी नदारद है। मल्टीप्लैक्स सिनेमाघरों में 300 से 500 रुपए का टिकट खरीदकर पॉपकार्न संस्कृति का संरक्षक वर्ग अब सिनेमा के कारोबार को संचालित कर रहा है। लेकिन यही वो वर्ग है, जिसने अपनी तमाम खामियों के बावजूद सिनेमा की नई पौध को पल्लवित होने के लिए पुख्ता जमीन उपलब्ध कराई है। दर्शकों के नए वर्ग की तेजी से बदलती पसंद के कारण आज नए और अछूते विषयों पर फिल्मों का निर्माण हो रहा है। 'विकी डोनर' से लेकर 'पिंक' या 'लिपस्टिक अंडर माई बुर्का' तक या फिर 'हिंदी मीडियम' या 'मॉम' से लेकर 'पैडमैन' और 'न्यूटन' तक- हिंदी सिनेमा नए मुहावरों और ताजा उक्तियों में अपनी पहचान की तलाश करता नजर आ रहा है। एक दशक पहले तक क्या कोई सोच सकता था कि शौचालय से जुड़ी समस्या पर कोई फिल्मकार 'टॉयलेट-एक प्रेम कथा' जैसी फिल्म बनाएगा, जिसमें एक वृहत सामाजिक संदेश को मनोरंजन के चुटीले फार्मूलों के साथ लपेटकर कुछ इस अंदाज में पेश किया गया कि फिल्म ने टिकट खिडक़ी पर कामयाबी की राह पकड़ ली। संकेत साफ हैं कि आज के दर्शक को किसी सुपरमैन या एंग्री यंगमैन की जरूरत नहीं है, उसे एक ऐसा हीरो चाहिए, जो उसकी आसपास की दुनिया में ही कहीं रहता हो और जिसका जीवन काल्पनिक परी कथाओं के नायक जैसा नहीं हो, बल्कि वह उसी माहौल में सांस लेता हो, जिस माहौल में दर्शक खुद जीता है।


मौजूदा डिजिटल दौर में फिल्मों का निर्माण और उनका प्रदर्शन उतना मुश्किल नहीं रह गया है, जितना आज से एक दशक पहले था। आज क्राउड फंडिंग का दौर है। इस दौर में फिल्म निर्माण के लिए बजट का इंतजाम करना तुलनात्मक रूप से आसान हो गया है। यही कारण है कि फिल्मकारों की एक नई पौध अपनी ताजगी के जरिए सिनेमाई माहौल को महकाने का काम बखूबी कर रही है। इसी दौर में असम के एक छोटे से गांव में रहने वाली रीमा दास 'विलेज रॉकस्टार्स' जैसी फिल्म बनाती हंै, जिसे ऑस्कर पुरस्कारों में देश का प्रतिनिधित्व करने का मौका मिलता है। रीमा दास ने उन बच्चों से फिल्म में काम कराया है, जिन्होंने अपने जीवन में कभी कैमरा देखा तक नहीं था। डिजिटल कैमरे पर बनी यह फिल्म आज देशभर में चर्चित है और बहुत सारे लोगों को यह जानकर हैरानी होगी कि रीमा दास ने फिल्म मेकिंग सीखने के लिए किसी भी तरह की कोई ट्रेनिंग नहीं ली और न ही किसी इंस्टीट्यूट में दाखिला लिया था। लेकिन आज वे अपनी पहली फिल्म को लेकर ऑस्कर अवार्ड हासिल करने का सपना संजो रही हैं।


इधर, मनोरंजन के बाजार में ऑनलाइन कंटेंट मुहैया कराने वाले प्लेटफॉर्म भी तेजी से अपनी जगह बना रहे हैं। आज हम वीडिया स्ट्रीमिंग के दौर में जी रहे हैं, आप अपने स्मार्टफोन में किसी स्ट्रीमिंग सर्विस का एप डाउनलोड कर सकते हैं, आप अपने लैपटॉप या डेस्क टॉप में इन स्ट्रीमिंग सर्विसेज की वेबसाइट में जा सकते हैं। साथ ही अपने टीवी में भी इन स्ट्रीमिंग सर्विस का आनंद ले सकते हैं। जो सर्विस प्रोवाइडर हैं (नेटफ्लिक्स, हॉटस्टार, अमेजन प्राइम वीडियो) ये आप तक फिल्में, शो और धारावाहिक दो तरह से लेकर आते हैं। या तो ये पहले से ही बने शो खरीद लें या फिर खुद के शो बनाएं। पहले से ही बने शो मतलब, वो शो/सीरीज/फिल्में जो मूलत: टीवी या सिनेमा हॉल के लिए बनाए गए थे और इन शोज को आप किसी और प्लैटफॉर्म पर भी देख सकते हैं। जैसे भारत के लिए 'गेम ऑफ थ्रोंस' हॉटस्टार नामक सर्विस प्रोवाइडर ने खरीदा, जबकि ये शो टीवी (एचबीओ) के लिए बनाया गया था। अमेजन प्राइम ने 'अक्टूबर' नाम की मूवी खरीदी, जबकि शूजित सरकार की यह फिल्म सिनेमाघरों के लिए बनाई गई थी। नेटफ्लिक्स की शुरुआत हुई थी साल 1997 में। तब ये किराए पर डीवीडी उपल्बध करवाती थी। तब इंटरनेट था नहीं। जब एक पहचान बन गई, तो मेल के द्वारा डीवीडी घर-घर पहुंचाने का काम शुरू कर दिया। इस बिजनेस आइडिया से इनकी धमक घर-घर तक पहुंच गई। मार्केट में पांव जम गया। फिर शुरू हुआ वीडियो ऑन डिमांड यानी जो प्रोग्राम जब देखना चाहें, तब देखें वाली सर्विस। 2007 में इसने स्ट्रीमिंग सर्विस शुरू की, लेकिन इंटरनेट क्रांति इसके लिए बहुत मददगार साबित हुई और 2016 में यह कंपनी सबसे ज्यादा ओरिजनल कंटेंट देने वाले चैनल/नेटवर्क के रूप में जम गई। आज नेटफ्लिक्स का एप सबसे ज्यादा कमाई करने वाला एप है। जाहिर है कि सिनेमा के सामने यह डिजिटल दौर की नई चुनौती है। खतरा तब और भी बढ़ जाता है जब हिंदी सिनेमा के नामचीन लोग भी इससे जुड़ जाते हैं। दबे स्वरों में लोग यह सवाल उठाने लगे हैं कि कहीं नेटफ्लिक्स जैसे कंटेंट प्लेटफॉर्म सिनेमाघरों का स्थान नहीं ले लें।


नेटफ्लिक्स का चलन लगातार बढ़ रहा है, लेकिन अब यह बीमारी की वजह भी बन गया है। हाल ही बेंगलुरू में एक बेरोजगार नौजवान को इसलिए अस्पताल में भर्ती कराया गया, क्योंकि उसे नेटफ्लिक्स की लत लग गई थी। वो आम लोगों से ज्यादा अलग नहीं था और वो दिन करीब सात घंटे नेटफ्लिक्स पर ही बिताता था। उसके घर वाले जब उसे जॉब ढूंढने के लिए कहते थे वो उसे इग्नोर करता था और टाइम नेटफ्लिक्स पर बिताता था। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइंसेस के सामने यह मामला सामने आया है। यह शख्स पिछले 6 महीनों से ऐसा कर रहा था, हालांकि अगर मेंटल हेल्थ एक्सपर्ट की मानी जाए तो वो ऐसे और भी मामले हो सकते हैं। रिपोर्ट के अनुसार उसने नौकरी आदि की चिंता ना करते हुए खुद को नेटफ्लिक्स की सीरिज में डुबोए रखा। ऐसा करके वो अपनी समस्याओं को भूल जाता था और खुद को खुश करता था। वह सुबह उठते ही टीवी ऑन कर लेता था। अब डॉक्टर्स इन वेब सीरीज के बढ़ते चलन के कारण काफी चिंतित भी हैं। दरअसल पहले ऑनलाइन गेमिंग एडिक्ट होने के कई मामले सामने आ चुके हैं।


ऑनलाइन मीडिया के इस नए दौर ने सिनेमा का विकल्प लोगों को उपलब्ध करा दिया है। लेकिन अगर आप ऑनलाइन स्ट्रीमिंग मीडिया से यथार्थवादी सिनेमा की उम्मीद लगाएंगे, तो निश्चित तौर पर आपको निराशा ही हाथ लगेगी। यह बाजार की ताकतों के हाथों संचालित प्लेटफॉर्म हैं, जाहिर है कि यहां सामाजिक सरोकारों की बात करना बेमानी है। बदलते हुए सामाजिक यथार्थ के साथ-साथ फिल्मों के कथ्य तथा अन्तर्वस्तु में भी भारी बदलाव आए हैं, लेकिन ऑनलाइन मीडिया का जो लक्षित वर्ग है, उसे चाहिए सिर्फ सनसनी और उत्तेजना। उसे देश के बहुसंख्यक लोगों के सुख-दु:ख, उत्साह-विशाद, जय-पराजय का साक्षी होना पसंद नहीं है, कम से कम डिजिटल प्लेटफॉर्म पर तो नहीं। यह वो नवधनाढ्य वर्ग है, जिसे 'दो आँखें बारह हाथ', 'जागृति', 'बूट पालिश', 'आवारा', 'कागज के फूल', 'प्यासा' जैसी फिल्में पसंद नहीं है। उसे 'सेक्रेड गेम्स' जैसी वेब सीरीज लुभाती हंै। उसे विदेशी तकनीक और लोकेशन से सजी-धजी फिल्में पसंद आती हैं। कुछ देर के लिए ही सही, उसे वास्तविक जिंदगी से जी चुराना पसंद है। नेटफ्लिक्स जैसी कंपनियां इसलिए भी तेजी से जगह बनाने में कामयाब हुई हैं क्योंकि इनका कंटेंट पूरी तरह सेंसर से मुक्त होता है। ऐसे में आप अगर अधिक खुलेपन की उम्मीद करें, तो ये प्लेटफॉर्म आपको निराश नहीं करते हैं। जाहिर है कि भारतीय सिनेमाई परिदृश्य बदल रहा है, फिल्म देखने वाले बदल रहे हैं और साथ ही साथ फिल्म देखने का तरीका भी बदल रहा है।



 


 


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