मोदी सरकार ने मीडिया पर शिकंजा कसा, सबक सिखाने के लिए बेताब

नई दिल्ली।  दिल्ली दंगों का सच दिखाने वाले मलयालम के दो न्यूज चैनलों- एशियानेट न्यूज और मीडिया वन न्यूज, पर 48 घंटे का प्रतिबंध लगा कर सरकार ने देश के सारे मीडिया घरानों और कारोबारियों को यह साफ-साफ और कड़ा संदेश देने की कोशिश की है कि अगर सरकार, पुलिस और आरएसएस की आलोचना की गई और किसी समुदाय विशेष का पक्ष लिया गया तो उनके साथ भी इसी तरह का सलूक करने में कोई परहेज नहीं किया जाएगा। केंद्र सरकार का यह कदम बता रहा है कि अब सरकार किसी भी रूप में अपनी आलोचना को बर्दाश्त नहीं करने वाली। जो भी सरकार की रीति-नीति की आलोचना करेगा, उसे सबक सिखाया जाएगा। इससे यह भी साफ़ हो गया है कि केंद्र सरकार ने मीडिया पर अपना शिकंजा और कस दिया है और सरकार मीडिया संस्थानों को धमकाने से भी पीछे नहीं हटेगी। 



दो न्यूज चैनलों पर लगाए गए प्रतिबन्ध को हालांकि एक दिन पहले ही हटा लिया गया है, पर देश भर के मीडिया कर्मियों ने इस मामले पर कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त की है। आज द टेलीग्राफ ने अपने विशेष संवाददाता की खबर में लिखा है कि  मीडिया को दबाने के मामले में इस तरह की कार्रवाई मोदी सरकार के काम काज का सामान्य तरीका बन गया है। एक या दो चैनल को रोकने और जब विवाद बढ़ता लगे तो अपना हाथ खींच लेने की उभरती शैली से सवाल उठता है कि क्या सरकार ऐसी कार्रवाई से सभी मीडिया संस्थानों को निशाना बनाना चाहती है। कार्रवाई और उसे वापस लिए जाने से ऐसा लग रहा है कि मुख्य मकसद मीडिया संस्थानों को धमकाना और डराना था कि दंगे जैसी स्थिति में सरकार की भूमिका पर जांच और उसकी प्रतिक्रिया पर उंगली  उठाने से पहले कई बार सोच लिया जाए।  


सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने एशियानेट न्यूज और मीडिया वन न्यूज पर यह पाबंदी शुक्रवार शाम साढ़े सात बजे से अगले अड़तालीस घंटे के लिए लगाई थी, लेकिन मामले की संवेदनशीलता को देखते हुए एशियानेट से शनिवार तड़के डेढ़ बजे और मीडिया वन न्यूज से शनिवार साढ़े नौ बजे ही हटा लिया गया था। यह कार्रवाई इस बात की ओर इशारा कर रही है कि पिछले पांच साल में नरेंद्र मोदी सरकार ने लोकतांत्रिक संस्थाओं को गरिमा को जो भारी नुकसान पहुंचाया है और उन्हें एक तरह से खत्म कर दिया है, वैसा ही हाल अब मीडिया का भी होगा।


हालांकि यह कोई पहला मौका नहीं है जब मोदी सरकार ने मीडिया को सबक सिखाने की ठानी हो। इससे पहले 2016 में पठानकोट एअरबेस पर आंतकी हमले की खबर दिखाने पर एनडीटीवी पर एक दिन के लिए पाबंदी लगा दी गई थी और चैनल पर संवेदनशील जानकारियां सार्वजनिक करने का आरोप लगाया था। अप्रैल 2018 में सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने फर्जी खबरों के प्रसारण पर मान्यताप्राप्त पत्रकारों को काली सूची में डालने का निर्देश दिया था पर बाद में आदेश वापस ले लिया। दोनों ही मामलों में मीडिया में जोरदार प्रतिक्रिया हुई थी। 2018 में भी सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अधिकारियों ने कहा था कि प्रधानमंत्री ने मामले में हस्तक्षेप किया और आदेश वापस कराया। इस तरह उन्हें मीडिया की आजादी के संरक्षण के रूप में पेश किया गया। वैसे अब यह राज की बात नहीं है कि इस सरकार में उनकी सहमति के बिना शायद ही कुछ होता है।


हालांकि एशियानेट न्यूज और मीडिया वन न्यूज पर यह पाबंदी के मामले में अपने बचाव में सूचना प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने सफाई दी है कि यह सब उनकी जानकारी के बिना हुआ है। अगर ऐसा है तो यह और भी गंभीर बात है। जो सरकार देश के मीडिया से लेकर अपने एक-एक आलोचक पर कड़ी नजर रख रही है, उसे अगर यह भी पता नहीं चले कि मंत्रालय के अधिकारी क्या कर रहे हैं, तो इससे सरकार की लाचारी ही झलकती है।


 


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